हडप्पा सभ्यता- सिन्धु घाटी सभ्यता

हडप्पा सभ्यता- सिन्धु घाटी सभ्यता

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हड़प्पा सभ्यता इसलिए कहा जाता है क्योंकि सर्वप्रथम 1921 में पाकिस्तान के शाहीवाल जिले के हड्प्पा नामक स्थल से इस सभ्यता की जानकारी प्राप्त हुई।

1922 में जब मोहनजोदड़ो एवं अन्य स्थलों का पता चला तब यह मानकर कि सिन्धु घाटी के इर्द-गिर्द ही इस सभ्यता का विस्तार है, उसका नामकरण ‘सिन्धु घाटी की सभ्यता’ किया गया। वर्तमान में हड़प्पा सभ्यता का क्षेत्रफल 1,2,99,600 वर्ग मील है।

इसका विस्तार पश्चिम में सुत्कगेन्डोर के मकरान तट से पूर्व में आलमगीर पुर (मेरठ जिला) एवं उत्तर में जम्मू से लेकर दक्षिण में नर्मदा तक था।

सबसे उत्तर में गुमला एवं सबसे दक्षिण में सूरत जिले का हलवाना इसमें सम्मिलित हैं।

  • सैन्धव सभ्यता(हडप्पा सभ्यता- सिन्धु घाटी सभ्यता) के महत्वपूर्ण स्थलों की स्थिति तथा परिचय

    बलूचिस्तान

    • सुत्केगेन्डोर- इसका पता 1927 में जार्ज डेल्स ने लगाया था। 1962 में जार्ज डेल्स ने इसका पुरात्वेषण किया। यह स्थल दाश्क नदी के किनारे स्थित है। यहाँ एक बन्दरगाह, दुर्ग एवं निचले नगर की रूपरेखा मिली।
    • एक बन्दरगाह के रूप में सम्भवतः सिन्धु सभ्यता, फारस एवं बेबीलोन के मध्य होने वाले व्यापार में इस स्थल ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई होगी।
    • सोत्काकोह – यह शादी कौर नदी के मुहाने पर स्थित है। 1962 में इसे डेल्स ने खोजा था। यहाँ पर भी ऊपरी एवं निचली दो टीले मिले हैं। यह बन्दरगाह न होकर समुद्र तट एवं समुद्र से दूरवर्ती भू-भाग के मध्य व्यापार का केन्द्र रहा होगा।
    • डाबरकोट– यह विंदार नदी के मुहाने पर स्थित है।

    सिन्धु

    • मोहनजोदड़ो-सिन्धु नदी के पूर्वी किनारे पर स्थित सिन्धु सभ्यता के एक केन्द्र के रूप में मोहनजोदड़ो (मृतकों का टोला) की खोज 1922 में राखलदास बनर्जी ने उस समय की जब वे एक बौद्ध स्तूप का वहाँ पर उत्खनन करवा रहे थे।
    • मार्शल के नेतृत्व में 1922 से 1923 तक यहाँ पुनः खुदाई कराई गई । यहाँ नगर निर्माण के चरण प्राप्त हुए हैं।
    • 1950 में सर मार्टिमर व्हीलर ने पुन: यहाँ की खुदाई कराई ।
    • सन् 1964 और 1966 में अमरीका के पुरातत्वविद् डेल्स ने पुनः यहाँ उत्खनन करवाया।
    • कोटदीजी– 1935 में धुर्ये ने इस स्थल से कुछ बर्तन इत्यादि प्राप्त किये थे। 1955-57 में फजल अहमद ने इस स्थल का उत्खनन करवाया। यहाँ पर सिन्धु सभ्यता के नीचे एक और संस्कृति के अवशेष मिले जिसे कोटदीजी संस्कृति कहा गया। यहाँ सिन्धु सभ्यता से सम्बन्धित बाणाग्न मिले हैं। यहाँ मकान कच्ची ईंटों के बने हैं परन्तु नीवों में पत्थर का प्रयोग हुआ है।
    • चन्हूदडो– यह स्थल मोहनजोदड़ो से दक्षिण-पूर्व दिशा में लगभग 75 कि० मी० की दूरी पर स्थित है।
    • यहाँ एक ही गढी प्राप्त है। ननी गोपाल मजूमदार ने इस स्थल को 1931 में ढूढ़ा था।
    • पुन: मैके ने 1935 में इस स्थल का उत्खनन करवाया था।
    • चन्हूदडो में सिन्धु सभ्यता के पूर्व की संस्कृतियों झूकर एवं झांगर संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं।

    पंजाब

    • हड़प्पा– हड़प्पा पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त के शाहीवाल जिले में रावी नदी के बाएँ किनारे पर स्थित है।
    • 1921 में दयाराम साहनी एवं माधोस्वरूप वत्स ने इस स्थल का अन्वेषण किया।
    • वैसे इनके पूर्व भी 1826 में चार्ल्स मैसन एवं 1853 एवं 1873 में जनरल कनिंघम ने हड्प्पा के टीले एवं इसके पुरातात्विक महत्व का लिखित उल्लेख किया था। 1946 में व्हीलर के निर्देशन में यहाँ उत्खनन हुआ।
    • अनुमानत: हड़प्पा का प्राचीन नगर मूल रूप में 5 कि० मी० के क्षेत्र में बसा था।
    • रोपड़– पंजाब में शिवालिक पहाड़ी की उपत्यका में स्थित इस स्थल की खुदाई यज्ञदत्त शर्मा के निर्देशन में 1955 से 1956 तक हुई। रोपड़ में सिन्धु सभ्यता के अतिरिक्त 5 अन्य सिन्धु-उत्तर संस्कृतियों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। यहाँ से कांचली मिट्टी एवं अन्य पदार्थों के आभूषण, ताम्र कुल्हाड़ी, चार्ट फलक, ताँबे की कुल्हाड़ी प्राप्त हुई है। एक कब्रिस्तान भी मिला है।
    • बाड़ा– यह स्थल रोपड़ के पास ही स्थित है।
    • संघोल– यह स्थल पंजाब प्रान्त के लुधियाना जिले में स्थित है, जिसकी खुदाई एस० एस० तलवार एवं रविन्द्र सिंह विष्ट ने कराई थी। यहाँ से ताँबे की दो छेनियाँ, काँचली मिट्टी की चूड़ियाँ, बाली और मनके प्राप्त हुए हैं। यहाँ कुछ वृत्ताकार गर्त मिले जो अग्नि स्थल के रूप में प्रयुक्त लगते हैं।

    हरियाणा

    • राखी गढ़ी– हरियाणा प्रान्त के जिंद जिले में स्थित इस स्थल की खोज सूरजभान और आचार्य भगवान देव ने की थी यहाँ से सिन्धु पूर्व सभ्यता के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं यहाँ से ताँबे के उपकरण एवं सिन्धुलिपियुक्त एक लघु मुद्रा भी उपलब्ध हुई है।
    • बणावली या बनवाली– यह हिसार जिले में सरस्वती नदी, जो अब सूख चुकी है, की घाटी में स्थित है। रविन्द्र सिंह विष्ट ने 1973-74 में यहाँ उत्खनन करवाया। यहाँ प्राप्त पुरातात्विक सामग्रियों में ताँबे के बाणाग्र, उस्तरे, मनके, पशु और मानव मृण्मूर्तियाँ, बाट बटखरे, मिट्टी की गोलियाँ, सिन्धु लिपि में अंकित लेख वाली मुद्रा आदि प्राप्त हुई है।
    • मीत्ताथल– हरियाणा प्रदेश में भिवानी जिले में स्थित इस स्थल का उत्खनन 1968 में सूरजभान ने करवाया।

    राजस्थान

    • कालीबंगा– राजस्थान प्रान्त के गंगानगर जिले में स्थित घघ्घर (प्राचीन सरस्वती) के किनारे कालीबंगा स्थित है। यहाँ सिन्धु सभ्यता के साथ-साथ सिन्धु-पूर्व सभ्यता के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं। 1961 में ब्रजवासी लाल एवं बालकृष्ण थापड़ के निर्देशन में 1961 में यहाँ खुदाई सम्पन्न हुई। 6 यहाँ खुदाई में दो टीले मिले हैं। दोनों टीले सुरक्षा दीवारों से घिरे हैं।

    उत्तर प्रदेश

    • आलमगीरपुर–  यह हिण्डन नदी के तट पर स्थित है।

    गुजरात

    • रंगपुर– यह मादर नदी के तट पर स्थित है, जहाँ माधोस्वरूप वत्स ने 1931-34 में तथा रंगनाथ राव ने 1953-54 में उत्खनन करवाया।
    • लोथल– यह काठियावाड़ में स्थित है। यहाँ पर एक गोदी मिली है जो समुद्री आवागमन तथा व्यापार के लिए महत्वपूर्ण थी । यहाँ मनकों का एक कारखाना मिला है हाथी के दाँत भी मिले हैं।
    • सुरकोतड़ा– कच्छ में स्थित सुरकोतड़ा की खोज श्री गजपत जोशी ने 1964 ई० में की। यहाँ सिन्धु सभ्यता के बर्तनों के साथ ही एक नयी तरह का लाल भाण्ड भी मिला है। यहाँ शवाधान के उदाहरण मुख्यत: अस्थि कलशों के रूप में मिले हैं। बड़ी चट्टान से ढकी एक कब्र भी मिली है। | यहाँ घोड़े की हड्डियाँ भी मिली हैं। ।

 

 

हडप्पा सभ्यता- सिन्धु घाटी सभ्यता

सिंधु सभ्यता के प्रमुख स्थल एवं उनकी स्थिति

स्थल

खोज 

उत्खनन कर्ता

नदी तट

स्थिति

हड़प्पा 1921 दयाराम साहनी रावी के बाएं किनारे मॉन्टगोमरी जिला (पाकिस्तान)
मोहनजोदड़ो 1922 राखल दास बनर्जी सिंधु के दाहिने किनारे पर लरकाना जिला (सिंध) पाकिस्तान
सुत्कागेण्डोर 1927 ऑरेल स्टाइल एवं जॉर्ज डेल्स दशक मकरान तट (बलूचिस्तान) पाकिस्तान
चन्हुदड़ो 1931 एम जे मजूमदार सिंधु के बाएं किनारे सिंध प्रांत पाकिस्तान
कालीबंगा 1953 बी बी लाल एवं बी के थापर घग्घर (सरस्वती) राजस्थान
कोटदीजी 1953 फजल अहमद सिंधु सिंध प्रांत पाकिस्तान
रंगपुर 1953-54 रंगनाथ राव मादर गुजरात
रोपड़ 1953-56 यज्ञदत्त शर्मा सतलज पंजाब
लोथल 1955 रंगनाथ राव भोगवा गुजरात
आलमगीरपुर 1958 यज्ञदत्त शर्मा हिंडन उत्तर प्रदेश
बनावली 1974 रविंद्र सिंह बिष्ट रंगोई हरियाणा
धोलावीरा 1990 रविंद्र सिंह बिष्ट लूनी गुजरात कच्छ जिला
सुरकोतदा 1972 जगपति जोशी कच्छ का रन गुजरात
राखीगढ़ी 1963 प्रो. सूरजभान हरियाणा
बालाकोट 1963-76 जी एफ डेल्स विंदार पाकिस्तान

सिन्धु सभ्यता का उद्भव

  • व्हीलर का मत है कि मेसोपोटामिया के लोग ही सिन्धु सभ्यता के जनक थे।
  • गार्डन का मत है कि मेसोपोटामिया के लोग समुद्री मार्ग से यहाँ आए तथा नये वातावरण में नये सिरे से चुनौतियों का सफलतापूर्वक सामना करने के फलस्वरूप यहाँ नई संस्कृति का विकास किये।
  • फेयर सर्विस के अनुसार इस सभ्यता का उद्भव और विस्तार बलूची संस्कृतियों का सिंधु प्रदेश की आखेट पर निर्भर करने वाली किन्हीं वन्य और कृषक संस्कृतियों के पारस्परिक प्रभाव के फलस्वरूप हुआ।
  • अमलानंद घोष ने सोथी (बीकानेर एवं गंगानगर क्षेत्र-राजस्थान) या ‘कालीबंगा प्रथम संस्कृति का हड़प्पा संस्कृति के विकास में महत्वपूर्ण योगदान माना हैं । जगपति जोशी ने भी इनके मत का समर्थन किया है।
  • धर्मपाल अग्रवाल, ब्रिजेट आल्चिन, रेमण्ड आल्चिन आदि विद्वानों ने यह धारणा व्यक्त की है कि सोथी संस्कृति (राजस्थान) सिन्धु सभ्यता से पूर्व कोई संस्कृति नहीं थी, प्रत्युत वह सिन्धु सभ्यता का ही प्रारम्भिक रूप थी।

 

सिन्धु संस्कृति की विशेषता ( नगर योजना)

  • सिन्धु सभ्यता के नगर विश्व के प्राचीनतम सुनियोजित नगर हैं। सिन्धु सभ्यता के नगरों में मकान जाल की तरह बसाये गये थे। |
  • प्राय: सड़कें एक दूसरे को समकोण पर काटती थीं तथा नगर को आयताकार खण्डों में विभक्त करती थीं मोहनजोदड़ो की सबसे चौड़ी सड़क 10 मी० से कुछ अधिक चौड़ी है।
  • अधिकांश नगरों में दुर्ग बने हुए थे जहाँ सम्भवत: शासक वर्ग के लोग रहते थे।
  • दुर्ग के बाहर निचले स्तर पर ईंटों के मकानों वाला शहर बसा था, जहाँ सामान्य लोग रहते थे। 6 सिन्धु सभ्यता में किसी भी सड़क को ईंट आदि बिछाकर पक्का नहीं बनाया गया था।
  • सिन्धु सभ्यता के प्रत्येक भवन में स्नानागार एवं घर के गंदे जल की निकासी के लिए नालियों का प्रबंध था। कई घरों में कुएँ भी थे। गलियों की चौड़ाई 1 मी० से 2 मी० तक था।
  • भवन निर्माण में पक्की एवं कच्ची दोनों तरह की ईंटों का प्रयोग हुआ है। सिंधु संस्कृति के नागरिक भवन निर्माण में सजावट और बाहरी आडम्बर के विशेष प्रेमी नहीं थे। उनके भवनों में विशेष अलंकरण नहीं दिखायी पड़ता है।
  • ईंटों पर भी किसी तरह का अलंकरण नहीं होता था। कालीबंगा की फर्श एकमात्र अपवाद है, जिसके निर्माण में अलंकृत ईंटों का प्रयोग हुआ है।
  • सिन्धु सभ्यता के अवशेषों में मन्दिर स्थापत्य का कोई उदाहरण नहीं प्राप्त हुआ है। ॐ हड़प्पा की जल निकास प्रणाली विलक्षण थी। सम्भवत: किसी भी दूसरी सभ्यता ने स्वास्थ्य और सफाई को इतना महत्व नहीं दिया, जितना कि हड़प्पा संस्कृति के लोगों ने दिया था। ६ सिन्धु सभ्यता में प्रयुक्त ईंटें अलग-अलग प्रकार की हैं।
  • मोहनजोदड़ो से प्राप्त सबसे बड़ी ईंट 43 | से० मी० X 26.27 से० मी० की है। कुछ ईंट 35.83 से० मी० X 18.41 से० मी०X26.27 से० मी० की मिली है। सबसे छोटी ईंटें 24.13 से० मी० X11.05 से० मी० X 5.08 से० मी० की हैं।
  • सामान्यतया व्यवहार में लाई गयी ईंटें 94 से० मी० X13.97 से० मी० X 6.35 से० मी० की हैं।
  • जुड़ाई के लिए सैन्धव लोग मुख्यत: मिट्टी के गारे का प्रयोग करते थे। जुड़ाई के लिए जिप्सम के मिश्रण का प्रयोग भी हुआ है, परन्तु अत्यन्त कम।मोहनजोदड़ो की केवल एक ही इमारत विशाल स्नानागर में गिरिपुष्पक का प्रयोग हुआ है। नालियों की जुड़ाई में जिप्सम और चूने के मिश्रण का प्रयोग हुआ है। |
  • दीवारों के मध्य में दरवाजे न होकर एक किनारे पर होते थे। लकड़ी के बने होने के कारण इनके अवशेष प्राप्य नहीं हैं। भवनों में खिड़कियों का निर्माण नहीं होता था।
  • इमारतों की छतें समतल थीं। भवनों में स्तम्भों का प्रयोग होता था परन्तु अत्यन्त कम। वर्गाकार एवं चतुर्भुजाकार स्तम्भों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। वृत्ताकार स्तम्भों का प्रयोग नहीं हुआ है।
  • सिन्धु सभ्यता के कुएँ वृत्ताकार अथवा अण्डाकार थे। अधिकांश कुएँ.91 मीटर व्यास वाले थे पर .61 मीटर वाले छोटे एवं 13 मीटर व्यास वाले के कुएँ भी मिले हैं।

हड़प्पा– हड़प्पा में विशेष स्थलों की निर्माण योजना

  • हड़प्पा– हड़प्पा में नगर के दो खण्ड हैं, पूर्वी टीला (निचला नगर), पश्चिमी टीला-गढी पश्चिमी टीले का निर्माण कृत्रिम चबूतरे पर किया गया है, इस खण्ड में किलेबन्दी पाई गयी है।
  • किलेबन्दी में आने जाने का मुख्य मार्ग उत्तर में था। यहाँ उत्खनन में उत्तरी प्रवेश द्वार एवं रावी के किनारे के बीच एक ‘अन्न भण्डार’, ‘श्रमिक आवास’ एवं सामान्य आवास क्षेत्र के दक्षिण में एक कब्रिस्तान भी मिला है। हड़प्पा में अन्न भंडार संख्या में 12 हैं जो छ: -छ: की दो कतारों में हैं।
  • प्रत्येक खण्ड का क्षेत्रफल लगभग 24X6.10 मी० है। 12 अन्नागार भवनों का पूरा क्षे० 2745 वर्ग मी० के लगभग है। |
  • अन्नागारों के दक्षिण में खुला फर्श है और इस पर दो कतारों में ईंटों के वृत्ताकार चबूतरे बने हैं। इसका उपयोग शायद फसल दावने के लिए होता था।
  • सामान्य आवास के दक्षिण में एक कब्रिस्तान मिला है।
  • मोहनजोदड़ो– यह नगर दो खण्डों में विभाजित है, पूर्वी एवं पश्चिमी, पश्चिमी भाग ऊँचा परन्तु छोटा है पश्चिमी खण्ड के आसपास कच्ची ईंटों से किलेबंदी की दीवार बनी है जिसमें मीनारें और बुर्ज बने हैं।
  • पश्चिमी गढ़ी में अनेक सार्वजनिक महत्व के स्थल स्थित हैं जैसे |‘अन्न भंडार, “पुरोहितवास’, महाविद्यालय भवन, विशाल स्नानागार आदि।
  • मोहनजोदड़ो का सबसे प्रमुख सार्वजनिक स्थल था दुर्ग (पश्चिमी खण्ड) में स्थित विशाल स्नानागार, यह स्नानागार 88 मी० लंबा, 7.01 मी० चौड़ा एवं 2.43 मी० गहरा है।
  • इस स्नानागार में नीचे उतरने के लिए उत्तर एवं दक्षिण सिरों में सीढियाँ बनी हुई थीं। इसकी फर्श पक्की ईंटों से बनी है। इस स्नानागार का इस्तेमाल आनुष्ठानिक स्नान के लिए होता था।
  • मोहनजोदड़ो की सबसे बड़ी इमारत है यहाँ का धान्य कोठार, जो 71 मीटर लम्बा एवं 15.23 मीटर चौड़ा है।
  • मोहनजोदड़ो के अधिकांश मकान पक्की ईंटों से बने हैं।
  • चन्हूदड़ो-यहाँ मनके बनाने का एक कारखाना प्राप्त हुआ है।
  • लोथल– लोथल की नगर निर्माण योजना और उपकरणों में समानता के आधार पर इसे लघु हड़प्पा या लघु मोहनजोदड़ो कहा गया है। यहाँ पूरी बस्ती एक ही दीवार से घिरी थी।
  • पूरे नगर के दो खण्ड़ थे गढ़ी और निचला नगर । लोथल का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्मारक गोदी था।
  • यहाँ से अग्निपूजा के भी साक्ष्य मिले हैं। गढ़ी में अनेक मकानों में वृत्ताकार या चतुर्भुजाकार अग्नि स्थान पाये गये हैं, जिनमें राख के साथ मृत्पिंड मिले हैं। शायद इसका उपयोग यज्ञ जैसे अनुष्ठान के लिए था।
  • कच्ची मिट्टी के एक मकान से मिट्टी के बर्तनों में कीमती पत्थरों के 600 अर्ध-निर्मित मनके मिले हैं। लगता है लोथल में मनका बनाने का कारखाना था। एक छोटा सा उपकरण मिला है जिसे शायद दिशा मापक की तरह उपयोग किया जाता होगा। |
  • कालीबंगा– इस नगर को भी गढ़ी और निचला नगर के रूप में बसाया गया था। गढी को दो भागों में एक दीवार द्वारा विभाजित कर दिया गया था।
  • अनेक जगहों पर ऊँचे-ऊँचे चबूतरों के शिखरों पर हवन कुण्डों के अस्तित्व का साक्ष्य मिलता है, जिसे यज्ञ के हवनकुंड के रूप में पहचाना गया है यहाँ से अलंकृत ईंटों का उदाहरण प्राप्त हुआ है।

कलात्मक गतिविधियाँ

पाषाण एवं धातु की मूर्तियाँ

  • सिन्धु सभ्यता के पुरातत्व अवशेषों में उपलब्ध पाषाण मूर्तियाँ संख्या में कम हैं । ये एलेबेस्टर, चूना पत्थर, सेलखड़ी, बलुआ पत्थर एवं सलेटी पत्थर से निर्मित हैं।
  • सभी मूर्तियाँ खण्डित अवस्था में प्राप्त हुई हैं। कोई भी पाषाण मूर्ति ऐसी नहीं प्राप्त हुई हैं जिसका सिर और धड़ दोनों एक में मिले हों। मोहनजोदड़ो से प्राप्त पाषाण मूर्तियाँ
  • मोहनजोदड़ो से एक सेलखड़ी की मूर्ति प्राप्त हुई है जिसके नेत्र लम्बे, अधर खुले तथा होठ मोटे, माथा छोटा और ढलुवा है। ओंठ पर मूछे मुड़ी हैं। वह एक शाल ओढ़े है जो बाएँ कंधे को ढके हैं, दायाँ हाथ खुला है। पीछे काढ़ी गयी केश लंबी मस्तक पर फीते से बंधी है।
  • चूने के पत्थर से निर्मित 14 से० मी० ऊँचाई का एक सिर प्राप्त हुआ है। लगभग 8 से० मी० का एक अन्य लम्बा सिर मिला है, इसमें लहरदार केशों को फीते से बाँधे दिखाया गया है। चूने पत्थर की बनी अधूरी मूर्ति पायी गयी है जो 14.6 से० मी० ऊँची
  • मोहनजोदड़ो से एलेबेस्टरपत्थर की बनी एक बैठे हुए आदमी की 5 सेमी ऊँची मूर्ति प्राप्त हुई है। यह आकृति अधर में पारदर्शी वस्त्र बाँधे है। यह बायीं भुजा ढकता हुआ दाहिनी भुजा के नीचे से होती हुआ पारदर्शी पतला शाल ओढे है । पुरुष का बायाँ घुटना उठा है और उस पर उसकी बायीं भुजा टिकी है।
  • एलेबेस्टर (चूने का जल युक्त सल्फेट) की ही एक और मूर्ति प्राप्त हुई है।

हड़प्पा से प्राप्त पाषाण मूर्तियाँ

  • हड़प्पा से लाल बलुआ पत्थर का एक युवा पुरुष का धड़ मिला है, यह मूर्ति पूर्णतया नग्न है।
  • एक अन्य मूर्ति जो सलेटी चूने-पत्थर की बनी है, जो नृत्य-मुद्रा में बनायी गई आकृति का धड़ है। यह आकृति दायें पैर खड़ी है और बायां पैर आगे की ओर कुछ ऊपर उठा हुआ है। |
  • पाषाण निर्मित पशुओं की मूर्तियों में मोहनजोदड़ो से 4 से० मी० ऊँची एक पत्थर की मूर्ति प्राप्त हुई है जिसमें मेढ़े जैसे सींग और शरीर दिखाये गये हैं और हाथी जैसी सूंड । मोहनजोदड़ो से ही सेलखड़ी का एक कुत्ता प्राप्त हुआ है।

कांस्य मूर्तियाँ

  • मोहनजोदड़ो से 14 से० मी० ऊँची कांस्य की नृत्य करती हुई नग्न मूर्ति प्राप्त हुई है। इसकी बायीं भुजा जो कंधे से लेकर कलाई तक चूड़ियों से भरी है, में एक पात्र है। इस मूर्ति का निर्माण द्रवी-मोम विधि से हुआ है।
  • मोहनजोदड़ो से कांसे की कुछ पशुओं की भी आकृतियाँ मिली हैं। इनमें भैंसा और मेढा (अथवा बकरा) की आकृतियाँ विशेष उल्लेखनीय हैं।
  • लोथल से ताँबे के पक्षी, बैल, खरगोश और कुत्ते की आकृतियाँ मिली हैं।

मृण्मूर्तियाँ

  • हड़प्पा संस्कृति में उपलब्ध शिल्प आकृतियों में सर्वाधिक संख्या मृण्मूर्तियों की है। मूर्तियाँ मानव और पशुओं की है। मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा से प्राप्त मृण्मूर्तियों में नारी की मृण्मूर्तियाँ पुरुषों से अधिक हैं।
  • नारी मृण्मूर्तियाँ– मूर्तियों को बनाने के लिए हाथ एवं साँचे का उपयोग होता था। | अधिकांश मृण्मूर्तियों में सिर पर पंखाकार – शिरोभूषा है तथा गले में हार पहने दिखाया गया है। पुरुष मृण्मूर्तियाँ बहुत थोड़े अपवादों को छोड़कर प्राय: सभी नग्न हैं। शृंगयुक्त चेहरे भी पाये गये हैं।
  • मोहनजोदड़ो से घुटने के बल चलते हुए दो बच्चों की मूर्तियाँ मिली हैं।

 पशु-मृण्मूर्तियाँ

  • सिन्धु सभ्यता की पशु-मूर्तियाँ मानव-मूर्तियों से अधिक संख्या में पाई गयी हैं। अधिकांश पशु मूर्तियाँ मिट्टी की बनी हैं।
  • मोहनजोदड़ो में छोटे सौंग और बिना कूबड़ के बैल की मूर्तियाँ सर्वाधिक संख्या में मिली हैं, उसके बाद कूबड़ वाले बैल की। बैल के पश्चात मोहनजोदड़ो में मेढ़े की आकृतियों की संख्या हैं, तत्पश्चात गैंडे की।
  • हड़प्पा में कूबड़ वाले बैलों की मूर्तियाँ सर्वाधिक संख्या में मिली हैं और उसके बाद बिना कूबड़ वाले | बैल की। संख्या में हड़प्पा में बैल के पश्चात गैंडे की आकृतियाँ हैं फिर मेढ़े की।
  • सिन्धु सभ्यता से प्राप्त अन्य पशुओं में भैंसा, हाथी, बाघ, बकरा, कुत्ता, खरगोश, सुअर, गिलहरी, साँप आदि हैं।घड़ियाल, कछुआ और मछली की मृण्मूर्तियाँ भी हड़प्पा से मिली हैं। | हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो की मृण्मूर्तियों में गाय की
  • आकृतियाँ नहीं मिली हैं। (प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता राव ने | दो गाय की मृण्मूर्तियाँ मिलने का उल्लेख किया है।)
  • सिन्धु सभ्यता के उत्खननों में फाख्ता, बत्तख, मोर, | मुर्गी, चील, कबूतर, गौरैया, तोता, उल्लू आदि पक्षी
  • की पहचान की गयी है। चन्हूदड़ो से एक अलंकृत हाथी का खिलौना प्राप्त हुआ है। बनवाली से मिट्टी के बने हल के खिलौने प्राप्त हुए हैं |

मुहरें

  • सिन्धु सभ्यता के विभिन्न स्थलों से लगभग 2000 मुहरें प्राप्त हुई हैं। ये इस सभ्यता की सर्वोत्तम कलाकृतियाँ है।।
  • अधिकांश मुहरों पर चित्रलिपि में लेख हैं या उन पर पशु आकृतियाँ बनी हैं।
  • अधिकांश मुहरें 77 से 0.91 सेमी लम्बी, 1.52 से 0.51 सेमी० चौड़ी तथा 1.27 सेमी० मोटी हैं।
  • अब तक प्राप्त मुहरों में सर्वाधिक सेलखड़ी की बनी हैं।
  • लोथल और देसालपुर से ताँबे की मुहरें मिली हैं।
  • मुहरें कई प्रकार की मिली हैं-बेलनाकार, वर्गाकार, चतुर्भुजाकार, बटन जैसी, घनाकार एवं गोल। | मोहनजोदड़ो से बेलनाकार मुहरें मिली हैं। मुहरों पर मनुष्य, एक श्रृंगी बैल, कूबड़ वाले बैल, जंगली भैंस, व्याघ्र, हाथी, गैंडा, हिरन, धनुष बाणलिए मानव, पेड़, पौधे आदि का अंकन है। ‘मोहनजोदड़ो की एक मुद्रा पर देवता, पशु और सात | नारी आकृतियाँ मिलती हैं।
  • चन्हूदड़ो की एक मुद्रा छाप पर दो नग्न नारियाँ अंकित हैं जो एक-एक ध्वज पकड़े खड़ी हैं।

मृदभाण्ड

  • इस सभ्यता के बर्तन अधिकतर चाक पर ही बने हैं, उन्हें भट्ठों में पकाया जाता था।
  • अधिकांश मृद्भाण्ड बिना चित्र वाले हैं। कुछ बर्तनों पर पीला, लाल या गुलाबी रंग का लेप है।
  • बर्तनों पर वनस्पति–पीपल, ताड़, नीम, केला, और बाजरा के चित्र पहचाने गये हैं। मछली, और, बकरे, हिरण, मुर्गा आदि जानवरों के चित्रण भी बर्तनों पर है।
  • ताँबे एवं काँसे के भाले और चाकू, बाणाग्र तथा कुल्हाड़ियाँ पायी गयी हैं।
  • मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा से भाले के फाल प्राप्त हुए हैं।
  • मैके को उत्खनन में मोहनजोदड़ो से दो आरियाँ मिली हैं-एक ताँबे की तथा एक काँसे की। काफी संख्या में छेनियां मिली हैं।
  • लोथल से नोक की तरफ छेद वाली सूई प्राप्त हुई है। यहीं से खाँचे वाला वर्मा मिला है।
  • ताँबे का एक हंसिया का फाल मोहनजोदड़ो से मिला है।

सिन्धु सभ्यता में धार्मिक विश्वास और अनुष्ठान

सिन्धु सभ्यता में ऐसा कोई भवन नहीं मिला है, जिसे सर्वमान्य रूप में मन्दिर की संज्ञा दी जा सके।

मातृदेवी

  • सिन्धु सभ्यता के निवासी मातृदेवी की उपासना करते थे।
  • हड़प्पा से एक मृण्मूर्ति प्राप्त हुई है जिसके गर्भ से एक पीपल का पौधा निकत्ता दिखाया गया है। इससे पता चलता है कि हड़प्पावासी धरती को उर्वरता की देवी समझते थे।
  • मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुद्रा पर एक नारी और पुरुष दिखाये गये हैं। पुरुष के हाथ में हँसिया है स्त्री बैठी हुई है तथा उसके बाल बिखरे हुए हैं । सम्भवतः यह बलि का उदाहरण है।
  • सिन्धुघाटी का देवता मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुद्रा पर एक पुरुष आकृति है जो त्रिमुखी लगती है। इस देवता में तीन सिर और सींग हैं। इसे आसीन योगी के रूप में चित्रित किया गया है। एक पैर दूसरे पैर पर रखा गया है। आकृति की दायीं ओर हाथी, और बाघ तथा बायीं ओर गैंडा और भैंसा हैं। आसन के नीचे दो हरिण दिखाये गए हैं। देवता को घेरे हुए पशु पृथ्वी की चारों दिशाओं में देख रहे हैं।
  • मार्शल इस अंकन को ‘शिव, पशुपति का प्रारूप मानते हैं। इसे | ‘योगेश्वर’ की मूर्ति भी कहा जाता है। मोहनजोदड़ो से ही एक मुद्रा पर एक त्रिमुखी आकृति पायी गयी है जो चौकी पर योगासन मुद्रा में बैठी है। आकृति श्रृंगयुक्त है शिरोभूषा के रूप में पीपल की एक टहनी है। |
  • मोहनजोदड़ो से एक अन्य मूर्ति की शिरोभूषा के रूप में एक टहनी दिखायी गयी है । मूर्ति एकमुखी कालीबंगा के एक मृत्पिंड पर एक ओर सींग वाले देवता का अंकन है, दूसरी तरफ मानव द्वारा बलि के लिए लाई गई बकरी है। मोहनजोदड़ो की एक मुद्रा पर एक आकृति है जो आधा मानव है तथा आधा बाघ।
  • मोहनजोदड़ो की एक मिट्टी की मुद्रा पर एक योगी के दो तरफ हाथ जोड़े पुरुष खड़े हैं। इनके पीछे सर्प के फन दिखाये गये हैं। हड़प्पा से प्राप्त एक मुद्रा में एक देवता जैसी आकृति के शिरोभूषा में तीन पंख जैसी आकृति दिखायी गयी है।

वृक्ष पूजा

  • सिन्धु सभ्यता युग में वृक्ष पूजा भी प्रचलित थी।

पशु पूजा

  • सिन्धु सभ्यता में लोग पशुओं की भी पूजा करते थे। इनमें प्रमुख था कूबड़ वाला सांड।

लिंग पूजा

  • बड़ी संख्या में लिंगों के प्राप्त होने से ऐसा लगता है कि सिन्धु सभ्यता में लिंग पूजा प्रचलित थी। सिन्धु सभ्यता के लोग शायद भूत-प्रेतों में विश्वास करते थे क्योंकि यहाँ अवशेषों में ताबीज पाये गये हैं।

शव विसर्जन

  • मार्शल नामक विद्वान ने सिन्धु-निवासियों में प्रचलित तीन प्रकार के शव विसर्जन के तरीकों का उल्लेख किया है |
  • (1) सम्पूर्ण शव को पृथ्वी में गाड़ना
  • (2) पशु-पक्षियों के खाने के पश्चात शव के बचे हुए भाग को माड़ना।
  • (3) शव का दाह कर उसकी भस्म गाड़ना
  • कालीबंगा से एक तथा लोथल से तीन युग्मित समाधियों के अवशेष मिलते हैं। हड़प्पा से लकड़ी के ताबूत में रखकर दफनाये गये शव की एक समाधि मिली है।

सिंधु सभ्यता में भिन्न स्थानों से आयात की जाने वाली वस्तुएं

 

आयात की जाने वाली वस्तुएं

स्थान
सोना अफगानिस्तान, फारस, भारत (कर्नाटक)
चांदी ईरान, अफगानिस्तान, मेसोपोटामिया
तांबा खेतड़ी (राजस्थान), बलूचिस्तान
टिन ईरान (मध्य एशिया), अफगानिस्तान
खेल खड़ी बलूचिस्तान, राजस्थान, गुजरात
हरित मणि दक्षिण भारत
शंख एवं कौड़ियां सौराष्ट्र (गुजरात), दक्षिण भारत
नील रत्न बदख्शाँ (अफगानिस्तान)
सीसा ईरान, राजस्थान, अफगानिस्तान, दक्षिण भारत
शिलाजीत हिमालय क्षेत्र
फिरोजा ईरान (खुरासान)
लाजवर्द बदख्शाँ (अफगानिस्तान), मेसोपोटामिया
गोमेद सौराष्ट्र, गुजरात
स्टेटाइट ईरान
स्फटिक दक्कन पठार, उड़ीसा, बिहार
स्लेट कांगड़ा

सिन्धु सभ्यता का आर्थिक जीवन

कृषि

  • सिन्धु सभ्यता के पुरावशेषों में कोई फावड़ा या हल नहीं मिला है, परन्तु कालीबंगा से हड़प्पा-पूर्व काल के कुंड मिले हैं जिनसे पता चलता है कि हड़प्पा काल में राजस्थान के खेतों में हल जोते जाते थे।
  • सम्भवत: सिन्धु सभ्यता में सिंचाई की व्यवस्था नहीं थी। इसका कारण यह हो सकता है कि हड़प्पा संस्कृति में गाँव प्रायः बाढ़ में मैदानों के समीप बसे हुए थे।
  • सिन्धु सभ्यता के लोग गेहूँ, जौ, राई, मटर, तिल चना, कपास, खजूर, तरबूज आदि पैदा करते थे।
  • सैन्धववासी अपनी आवश्यकता से अधिक अनाज पैदा करते थे, जो शहरों में रहने वाले लोगों के काम आता था। किसानों से सम्भवत: कर के रूप में अनाज लिया जाता था और मजदूरी के रूप में धान्य कोठारों में इसका वितरण होता था। |
  • सिन्धु सभ्यता के लोग कपास पैदा करने वाले सबसे पुराने लोगों में से थे। चूँकि कपास सबसे पहले इसी क्षेत्र में पैदा किया गया था, इसीलिए यूनानियों ने इसे सिंडोना (सिंडन) जिसकी व्युत्पत्ति सिन्ध से हुई है, नाम दिया था।
  • मोहनजोदड़ो से बुने हुए सूती कपड़े का एक टुकड़ा मिला है। यहीं से एक चाँदी के बर्तन में तथा ताँबे के उपकरण में लिपटे सूती कपड़े के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
  • हड़प्पा से तरबूज के बीज मिले हैं। लोथल और रंगपुर से धान (चावल) की उपज के बारे में जानकारी प्राप्त हुई है। |
  • राजकीय स्तर पर अनाज रखने के लिए हड़प्पा, मोहनजोदड़ो और लोथल में विशाल अन्नागारों का निर्माण हुआ था।
  • हड़प्पा में अन्नागारों के समीप ही अनाज कूटने के लिए बने चबूतरे और मजदूरों के निवास मिले हैं। लोथल में एक वृत्ताकार चक्की के दो पाट मिले हैं। ऊपर वाले पाट में अनाज डालने के लिए दो छेद हैं।

पशुपालन

  • सिन्धु सभ्यता में पाले जाने वाले पशु थे-बैल, भेड़, बकरी, भैंसा, सुअर, हाथी, कुत्ते, गधे आदि।
  • ऊँट, गैंडा, मछली, कछुए, का चित्रण सिन्धु घाटी की मुद्राओं पर हुआ है।
  • सिन्धु निवासियों को कूबड़वाला सांड़ विशेष प्रिय था।
  • बिल्ली के पैरों के निशान भी मिले हैं।
  • सिन्धु सभ्यता में घोड़े के अस्तित्व पर विद्वानों में परस्पर विवाद है।
  • मोहनजोदड़ो के ऊपर की सतह पर प्राप्त. घोड़े की हड्डियों को कुछ विद्वान सिन्धुकाल का मानते हैं, कुछ परवर्ती काल का।
  • मोहनजोदड़ो से ही मिट्टी की एक घोड़े जैसी आकृति भी मिली है।
  • लोथल से भी तीन मृण्मय खिलौने प्राप्त हुए हैं जिन्हें अश्व के रूप में पहचाना गया है।
  • सुरकोटड़ा में भी सिन्धु सभ्यता के अन्तिम चरण में घोड़े की हड्डियाँ मिली हैं।
  • हाथी गुजरात के क्षेत्र में पाला जाने वाला पशु था। इसका अंकन कई मुद्राओं पर हुआ है।
  • ऊँट का अंकन यद्यपि किसी मुद्रा पर नहीं हुआ है परन्तु उसकी हड्डियाँ प्राप्त हुई हैं।

उद्योग एवं तकनीक

  • हड़प्पा संस्कृति कांस्ययुगीन है। धातुकर्मी ताँबे. के साथ टिन मिलाकर कांसा तैयार करते थे। ७ ताँबा राजस्थान की खेतड़ी खानों से प्राप्त किया जाता था।
  • कताई बुनाई का व्यवसाय सिन्धु सभ्यता में एक प्रमुख व्यवसाय था।
  • मोहनजोदड़ो से एक चाँदी के बर्तन में कपड़े के अवशेष पाये गये हैं। यही से ताँबे के उपकरणों में लिपटे सूत का कपड़ा और धागा मिला है। |
  • कालीबंगा से एक बर्तन का टुकड़ा मिला है जिस पर सूती कपड़े के निशान हैं। कालीबंगा से ही एक उस्तरे पर कपास का वस्त्र लिपटा हुआ मिला है।
  • बुनकर सूती और ऊनी कपड़ा बुनते थे। कताई के लिए तकलियों का इस्तेमाल होता था।
  • ईंटों के विशाल इमारतों से पता चलता है कि राजगीरी एक महत्वपूर्ण कौशल था।
  • कुम्हार चाक के इस्तेमाल से बर्तन बनाते थे। बर्तनों को चिकना और चमकीला बनाया जाता था।
  • पत्थर, धातु एवं मिट्टी की मूर्तियों का निर्माण भी महत्वपूर्ण उद्योग थे।
  • लोहे की जानकारी लोगों को नहीं थी। लोथल और चन्हूदड़ो में मनके बनाने का कारखाना था। हाथी दाँत का काम भी होता था।
  • हड़प्पा संस्कृति के लोग नौकाएँ बनाना भी जानते थे।
  • सुनार चाँदी, सोना एवं कीमती पत्थरों से आभूषण बनाते थे। लोथल से पुए के आकार की ताँबे की सिल प्राप्त हुई है, जो फारस की खाड़ी से मगायी जाती थी।

व्यापार

  • हड़प्पा सभ्यता के लोग धातु की मुद्राओं का प्रयोग नहीं करते थे अतः ऐसा प्रतीत होता है कि व्यापार वस्तु विनिमय के माध्यम से होता था। 6 व्यापार में नावों का प्रयोग होता था।
  • लोग ठोस पहिए वाले बैलगाड़ियों का इस्तेमाल करते थे। आधुनिक इक्के जैसे वाहन का भी इस्तेमाल होता था। | सिन्धु सभ्यता के लोगों का व्यापार बाह्य एवं आन्तरिक दोनों प्रकार का था।
  • विदेशी व्यापार के अन्तर्गत टिन अफगानिस्तान या ईरान से, सीसा ईरान, अफगानिस्तान और राजस्थान से, सोना दक्षिण भारत से, चाँदी मुख्यतः ईरान एवं अफगानिस्तान से, लाजवर्द बदां से, एलेबेस्टर बलूचिस्तान से आयात किया जाता था।
  • ताँबा मुख्यत: राजस्थान के खेतड़ी खानों से, सेलखड़ी बलूचिस्तान एवं राजस्थान से, स्लेटी पत्थर राजस्थान से, संगमरमर एवं ब्लड स्टोन भी राजस्थान से तथा देवदार एवं शिलाजीत हिमालय क्षेत्र से मंगाये जाते थे।
  • सिन्धु सभ्यता में मोहरों, दो प्रकार के मनकों तथा कुछ अन्य विविध वस्तुओं के बाह्य व्यापार का साक्ष्य फारस की खाड़ी, मेसोपोटामिया, अफगानिस्तान और सोवियत दक्षिणी तुर्कमेनिया से भिन्न-भिन्न मात्रा में प्राप्त होता है।
  • भारत में प्राप्त उल्लेखनीय विदेशी वस्तुएँ हैं-लोथल से फारस की मोहर, कालीबंगा से मेसोपोटामिया की एक बेलनाकार मोहर ।
  • लगभग 2350 ई० के मेसोपोटामियाई अभिलेखों में मैलुहा के साथ व्यापार संबन्ध होने के उल्लेख मिलते हैं। मेलुहा सम्भवतः सिन्धु प्रदेश का प्राचीन नाम रहा होगा।

माप-तौल

  • मोहनजोदड़ो से सीप का एक मापदण्ड मिला है। यह 55 से० मी० लंबा, 1.55 सेमी० चौड़ा और .675 सेमी मोटा है। इसके एक तरफ बराबर बराबर दूरी पर 9 निशान बने हैं। किन्हीं भी दो निशानों के बीच की दूरी 0.66 सेमी है।
  • लोथल से एक हाथी-दाँत का पैमाना मिला है।
  • भूरे चर्ट पत्थर के बाट सर्वाधिक संख्या में प्राप्त | हुए हैं। अन्य पत्थरों में चूना पत्थर, सेलखड़ी, स्लेट पत्थर, कैलसिडोनी इत्यादि के बाट बनते थे।
  • बाट कई आकार प्रकार के होते थे-घनाकार बाट सर्वाधिक संख्या में प्राप्त हुए हैं। इसके अलावा बर्तुलाकार बाट, चपटे बेलनाकार बाट, शंक्वाकार बाट, ढोलाकार बाट आदि आकार प्रकार के बाट प्राप्त हुये हैं।

 

सिन्धु सभ्यता की लिपि

  • सिन्धु लिपि के लगभग 400 चिह्न ज्ञात हैं। लिखावट सामान्यतया बाईं से दायी ओर है। सिन्धु लिपि पढ़ पाने में अभी तक सफलता नहीं मिली है।
  • सिन्धु सभ्यता से लंबे अभिलेख नहीं मिले हैं। सिन्धु लिपि के प्रत्येक चिह्न किसी ध्वनि, वस्तु अथवा विचार को द्योतक है। लिपि वर्ण कलात्मक नहीं बल्कि भाव चित्रात्मक है।

 

काल निर्धारण

  • आज हड़प्पा सभ्यता का काल निर्धारण विभिन्न स्थलों से प्राप्त सामग्रियों के रेडियो कार्बन तिथियों पर आधारित है।
  • इस विधि से सिन्धु सभ्यता की अवधि 2800/2900-2000 निर्धारित हुई है। यही तिथि सर्वमान्य हुई है। |
  • मार्शल ने सैन्धव सभ्यता की तिथि 3250-2750 निर्धारित किया था।
  • अनॅस्ट मैके ने 2800-2500 निर्धारित किया था। व्हीलर ने 2500-1500 माना है। फेयर सर्विस ने 2000-1500 माना है।

 

विद्वान मत

  • आर० एस० शर्मा 2500 से 1800 ई० पू०
  • फेयर सर्विस 2000 से 1500 ई० पू०
  • जॉन मार्शल 3250 से 2750 ई० पू०
  • माधो स्वरूप वत्स 3500 से 2700 ई० पू०
  • मार्टीमर व्हीलर 2500 से 1500 ई० पू०
  • अर्नेस्ट मैके 2800 से 2500 ई० पू०

 

जाति निर्धारण

  • मोहनजोदड़ो से प्राप्त कंकालों की बनावट के आधार पर कंकालों को मानव शास्त्रीय अध्ययन से जाति के आधार पर निम्न चार समूहों में वर्गीकृत किया गया

(1) आद्य आस्ट्रेलायड (2) भूमध्य-सागरीय (3) मंगोलीय (4) अल्पाइन

सिन्धु सभ्यता का अंत

  • सिन्धु सभ्यता के पतन का अभी तक कोई निश्चित कारण ज्ञात नहीं हो सका है। विभिन्न अनुमान किये गये हैं जो निम्नवत हैं कुछ विद्वानों ने जलवायु परिवर्तन को सैन्धव सभ्यता के पतन का कारण माना है।
  • ऐसी धारणा व्यक्त की गयी है कि मानसूनी हवाओं के बदलने से सिंध क्षेत्र में वर्षा में कमी आयी। घोष का कहना है कि आर्द्रता का ह्रास एवं शुष्कता का विस्तार सभ्यता के अंत का प्रमुख कारण है।
  • एच० टी० लैम्बरिक आदि के अनुसार नदियों के मार्ग परिवर्तन से भी बस्तियाँ उजड़ गयी होंगीं। रावी जो हड़प्पा के बिलकुल समीप बहती थी आज वह लगभग 6 मील की दूरी पर है।
  • नदियों में बाढ़ का आना हड़प्पा संस्कृति के लोगों के लिए एक सामान्य विभीषिका बन चुका था। मार्शल के द्वारा मोहनजोदड़ो की खुदाई में 7 स्तर प्राप्त हुए हैं।
  • प्रसिद्ध भारतीय भूगर्भशास्त्री एम० आर० साहनी ने यह धारणा व्यक्त की थी कि सिन्धु सभ्यता के अंत का मुख्य कारण विशाल पैमाने पर जलप्लावन था।
  • एक आधुनिक मत (जिसके समर्थक फेयर सर्विस आदि हैं) है कि इस सभ्यता ने अपने साधनों का जरूरत से ज्यादा व्यय कर डाला जिससे उनकी जीवन शक्ति नष्ट हो गयी। |
  • मार्टिन व्हीलर आदि विद्वानों का मत है कि सिन्धु सभ्यता का अंत आर्यों के आक्रमण के कारण हुआ। यह मत दो तथ्यों पर आधारित है
  • मोहनजोदड़ो के ऊपरी सतह पर प्रभूत संख्या में कंकालों का अन्वेषण-जिससे आर्यों द्वारा किए गए नरसंहार का पता चलता है।
  • ऋग्वेद के अन्तर्गत इन्द्र को दुर्ग-संहारक के रूप में उल्लिखित किया गया है।

 

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