श्वसन की परिभाषा क्या है | प्रकार | उदाहरण | मनुष्य में श्वसन तंत्र
ऑक्सीजन की उपस्थिति में खाद्य पदार्थ का कोशिकाओं में ऑक्सीकरण जिसमें ऊर्जा उत्पन्न होती है, श्वसन कहलाता है।
ऊर्जा प्राप्त करने हेतु कोशिकाएँ पोषक तत्वों का O2 द्वारा ऑक्सीकरण करती हैं। इस क्रिया के फलस्वरूप ATP का निर्माण होता है तथा हानिकारक CO2 गैस उत्पन्न होती है।
ऊर्जा (ATP) = भोजन + O2
श्वसन एक जैव रासायनिक प्रक्रिया है, जिसमें ग्लूकोज का ऑक्सीकरण तथा विघटन होता है। जिसके फलस्वरूप कार्बनडाई ऑक्साईड (CO2), जल तथा ATP के रूप में ऊर्जा का निर्माण होता है।
श्वसन प्रक्रिया/ अभिक्रिया का समीकरण :-
C6H12O6 + 6O2 →6CO2 + 12H2O + 36 ATP
श्वसन की प्रक्रिया के चार चरण: बाह्य श्वसन, आन्तरिक श्वसन, कोशिकीय श्वसन, परिवहन
बाह्य श्वसन :- वातावरण तथा फेंफड़ो के मध्य गैसों का आदान-प्रदान बाह्य श्वसन कहलाता है।
आन्तरिक श्वसन:- रक्त तथा शरीर के अन्य ऊतको के मध्य गैसों का आदान-प्रदान आन्तरिक श्वसन कहलाता है।
कोशिकीय श्वसन:- कोशिकाओं में उपस्थित ग्लूकोज को O2 के द्वारा तोड़कर CO2, H2O तथा ATP के रूप में ऊर्जा का निर्माण कोशिकीय श्वसन कहलाता है।
परिवहन:- शरीर की 97% ऑक्सीजन का परिवहन हीमोग्लोबिन के रूप में होता है तथा केवल 3% ऑक्सीजन का परिवहन प्लाज्मा के रूप में होता है।
महत्वपूर्ण तथ्य
- 1 हीमोग्लोबिन का अणु 4 ऑक्सीजन के अणुओं का परिवहन करता है।
- O2के परिवहन के समय (Fe+2) फैरस आयन की ऑक्सीजन अवस्था में परिवर्तन नहीं होता है।
- हीमोग्लोबिन अम्ल तथा क्षार दोनों के समान व्यवहार करता है।
- हीमोग्लोबिन एक संयुक्त प्रोटीन है जो कि हिम (Fe+2) तथा ग्लोबिन से निर्मित होता है।
- हीमोग्लोबिन को श्वसनीय वर्णक कहा जाता है।
कार्बन डाई ऑक्साईड का परिवहन:-
- शरीर की 60-65% CO2का परिवहन बाई कार्बोनेट (HCO3) के रूप में होता है।
- 20-25% परिवहन हीमोग्लोबिन के रूप में होता है।
- 5-7% CO2का परिवहन प्लाज्मा के रूप में होता है।
- ऊपरी श्वसन तंत्र (Upper Respiratory System)
नासिका :-
- यह पहला श्वसन अंग है जो बाहर दिखने वाले एक जोड़ी नासाद्वार से शुरू होता है।
- यह एक बड़ी गुहा के रूप में होती है जो एक पतली हड्डी व झिल्ली के द्वारा दो भागों में विभक्त होती है ।
- नासिका मुहा का पृष्ठ भाग नासाग्रसनी में खुलता हैं।
- नासिका गुहा में पाए जाने वाले महीन बाल, पतली झिल्ली में होने वाला रक्त प्रवाह, झाडुनुमा पक्ष्माभ तथा श्लेष्मा आपसी सहयोग से श्वास वायु में धूल कण, पराग कण, फफूँद आदि को दूर कर उसे शुद्ध करते हैं।
- इस शुद्धि के पश्चात् ही श्वास वायु फेफडों में प्रवेश करती है।
मुख :-
मुख श्वसन तंत्र में एक द्वितीयक अंग के तौर पर कार्य करता है ।
श्वास लेने में मुख्य भूमिका नासिका की होती है परन्तु आवश्यकता होने पर मुख भी श्वास लेने के काम आता है ।
परन्तु मुख से ली गई श्वास वायु नासिका से ली गई श्वास की भांति शुद्ध नहीं होती ।
ग्रसनी :-
ग्रसनी एक पेशीय चिमनीनुमा संरचना है जो नासिका गुहा के पृष्ठ भाग से आहारनली के ऊपरी भाग तक फैली हुई है।
ग्रसनी को तीन भागों में विभक्त किया गया है –
- नासाग्रसनी
- मुखग्रसनी
- अधोग्रसनी या कंठ ग्रसनी।
महत्वपूर्ण तथ्य
नासाग्रसनी नासिका गुहा के पृष्ठ भाग में पाए जाने वाला ग्रसनी का प्रथम भाग है।
वायु नासिका गुहा से गुजरने के पश्चात् नासाग्रसनी से होती हुई मुखग्रसनी में आती है।
मुखग्रसनी से वायु कंठ-ग्रसनी से होते हुए एपिग्लॉटिस (घाटी ढक्कन) की सहायता से स्वर यंत्र में प्रविष्ठ होती है।
घाटी ढक्कन एक पल्लेनुमा लोचदार उपास्थि संचरना है जो श्वासनली एवं आहारनली के मध्य एक स्विच का कार्य करता है
अर्थात् वायु श्वासनली में ही जाए तथा भोजन आहारनली में।
स्वर यंत्र/लेरिग्स :
यह कंठ ग्रसनी व श्वासनली को जोड़ने वाली एक छोटी सी संरचना है । यह नौ प्रकार की उपास्थि से मिल कर बना है।
भोजन को निगलने के दौरान एपिग्लॉटिस स्वर यंत्र के आवरण के तौर पर कार्य करती है तथा भोजन को स्वर यंत्र में जाने से रोकती है ।
स्वर यंत्र में स्वर –रज्जु नामक विशेष संरचनाएँ पाई जाती है।
स्वर – रज्जु श्लेष्मा झिल्लियाँ होती हैं जो हवा के बहाव से कंपकपी पैदा कर अलग-अलग तरह की ध्वनियाँ उत्पन्न करती हैं।
- निचला श्वसन तंत्र (lower respiratory System in):
(A) श्वासनली :
यह करीब 5 इंच लंबी नली होती है जो कूटस्तरीय पक्ष्माभी स्तंभाकार उपकला द्वारा रेखित C- आकार के उपास्थि छल्ले से बनी होती है।
ये छल्ले श्वास नली को आपस में चिपकने से रोकते हैं तथा इसे सदैव खुला रखते हैं।
श्वासनली स्वरयंत्र को श्वसनी से मिलाती है तथा श्वास को गर्दन से वक्षस्थल तक पहुँचाती है।
वक्षगुहा में पहुँचकर श्वासनली दाहिनी तथा बांयी और दो भागों में विभाजित हो अपनी तरफ के फेफड़ो में प्रविष्ट हो जाती है ।
इन शाखाओं को प्राथमिक श्वसनी कहते हैं।
श्वासनली में उपस्थित उपकला श्लेष्मा का निर्माण करती है जो श्वास के साथ आने वाली वायु को शुद्ध कर फेफड़ो की और अग्रेषित करती है ।
(B) श्वसनी (ब्रोंकाई) व श्वसनिका (ब्रोन्किओल):
श्वासनली अंत में दायीं और बायीं ओर की श्वसनी में विभक्त होती है।
प्राथमिक श्वसनी फेफड़ों में जाकर छोटी छोटी शाखाओं में बंट जाती हैं जिन्हें द्वितीयक श्वसनी कहते हैं ।
प्रत्येक खण्ड में द्वितीयक श्वसनी तृतीयक श्वसनीयों में विभक्त होती है।
प्रत्येक तृतीयक श्वसनी छोटी-छोटी श्वसनिका (ब्रोन्किओल) में बंट जाती है। ये ब्रोन्किओल आगे चल के छोटी सीमांत ब्रोन्किओल में विभक्त होती है।
श्वसनी तथा ब्रोन्किओल मिल कर एक वक्षनुमा संरचना बनाते है जो बहुत सी शाखाओं में विभक्त होती है।
इन शाखाओं के अंतिम छोर पर कूपिकाएँ पायी जाते है। गैसो का विनिमय इन कूपिकाओं के माध्यम से होता है।
(C) फेफड़ें :
फेफड़े (फुफ्फुस) लचीले, कोमल तथा हल्के गुलाबी रंग के होते है।
ये एक जोड़े के रूप में शरीर के वक्ष स्थल में दाएं व बाएं भाग में मध्यपट के ठीक ऊपर स्थिर होते हैं।
फेफड़ें असंख्य श्वास नलियों, कूपिकाओं, रक्त वाहिनियों, लसीका वाहिनियों, लचीले तंतुओं, झिल्लियाँ तथा अनेकों कोशिकाओं से निर्मित हैं, दाहिना फेफड़ा बाएं फेफड़े से लंबाई में थोड़ा छोटा पर कुछ अधिक चौडा होता है।
पुरूषों के फेफड़े स्त्रियो के फेफडों से थोड़े भारी होते है।
बायां फेफड़ा दो खण्डों में तथा दाहिना तीन खण्डों में विभक्त होता हैं।
प्रत्येक उपखण्ड अनेकों छोटे खंड़ो में विभक्त होते है जिनमें श्वास नली की शाखाएँ,
धमनियों व शिराओं की शाखाएँ विभाजित होते हुए एक स्वतंत्र इकाई का गठन करते है।
प्रत्येक फेफड़े स्पंजी उत्तकों से बना होता है जिसमें कई केशिकाएँ तथा करीब 30 मिलियन कूपिकाएँ पाई जाती है।
कूपिका एक कपनुमा संरचना होती है जो सीमांत ब्रोन्किओल के आखिरी सिरे पर पाई जाती है।
ये असंख्य केशिकाओं से घिरा रहता है। कूपिका में शल्की उपकला की पंक्तियाँ पाई जाती हैं जो केशिका में प्रवाहित रूधिर से गैसों के विनिमय में मदद करती है।
- श्वसन मांसपेशियाँ :
तनुपट या डायफ्राम वक्ष गुहा को उदर गुहा से अलग करता है। इसके संकुचन से वक्ष गुहा का आकार बढ़ता है व वायु नासिका के रास्ते फेफड़ों से बाहर निकल जाती है।
फेफड़ो में वायु के आवागमन में डायफ्राम के अतिरिक्त विशेष प्रकार की मांसपेशियाँ भी मदद करती है।
अन्त:श्वसन व बहिश्वसन में अंतर
अन्त:श्वसन | बहिश्वसन |
अन्त:श्वसन में अन्तरापर्शुक पेशियाँ एवं डायफ्राम में संकुचन होता है। | बहिश्वसन में अन्तरापर्शुक पेशियाँ एवं डायफ्राम में शिथिलन होता है |
वक्ष गुहा बाहर की तरफ गति करती है। | वक्ष गुहा अंदर की तरफ गति करती है। |
वक्ष गुहा का आयतन बढ़ता है। | वक्ष गुहा का आयतन घटता है। |
वक्ष गुहा का दाब घटता है। | वक्ष गुहा का दाब बढ़ता है। |
सांद्रता घटती है। | सांद्रता बढ़ती है। |
विसरण के कारण गैसे बाहर से शरीर के अंदर प्रवेश करती है। | विसरण के कारण गैसे अंदर से शरीर के बाहर उत्सर्जित होती है। |
इस प्रक्रिया में डायफ्राम चपटा हो जाता है। | इस प्रक्रिया में डायफ्राम सीधी हो जाता है। |
अन्त:श्वसन में 2 सैकण्ड का समय लगता है। |
बहिश्वसन में 3 सैकण्ड का |
श्वसन के प्रकार (Types of Human Respiratory system)
वायवीय श्वसन/ऑक्सीश्वसन :-
- यह ऑक्सीजन की उपस्थिति में होता है।
- यह माइटोकॉन्ड्रिया के मेट्रीक्स भाग में होती है।
- वायवीय श्वसन के दौरान ग्लूकोज से CO2, H2O तथा ATP का निर्माण होता है।
- वायवीय श्वसन के दौरान 36 या 38 ATP का निर्माण होता है।
अवायवीय श्वसन/अनॉक्सीश्वसन/किण्वन :-
- यह ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में होता है।
- अवायवीय श्वसन कोशिका द्रव्य में होता है।
- अवायवीय श्वसन में ग्लूकोज के टूटने पर एथेनॉल, लैक्टिक एसिड, जल, CO2 तथा ATP का निर्माण होता है।
- अवायवीय श्वसन के दौरान 2 ATP के अणुओं का निर्माण होता है।
श्वसन पथ:-
किण्वन-
- किणवन की खोज क्रइकशैन्क ने की थी। किण्वन शब्द का प्रयोग उन क्रियाओं के लिये किया जाता है
जिनमें विभिन्न जीवाणुओं व कवकों के ऑक्सी व अनॉक्सी श्वसन द्वारा ग्लूकोज का अपूर्ण विघटन होकर
CO2 व एथिल एल्कोहल का निर्माण व साथसाथ में दूसरे कार्बनिक अम्ल जैसे- एसिटिक अम्ल, ऑक्जेलिक
अम्ल इत्यादि बनते हैं, किण्वन क्रिया में बनने वाले उत्पाद को निम्न प्रकारों में बांटा गया हैं। - एल्कोहलीय किण्वन, 2. लेक्टिक अम्ल किण्वन, 3. एसिटिक अम्ल किण्वन, 4. ब्यूटाइरिक अम्ल किण्वन।
क्रेब्स चक्र-
- इसका वर्णन हैन्स क्रेब ने सन् 1937 ई. में किया। इसको साइट्रिक अम्ल चक्र या ट्राइकार्बोक्सिलिक चक्र भी कहा जाता है।
यह माइट्रोकॉन्ड्रिया के अन्दर विशेष एन्जाइम की उपस्थिति में ही सम्पन्न होता है।
क्रैब्स चक्र श्वसन की द्वितीय व अंतिम अभिक्रिया है।
इसमें पाइरूबिक अम्ल से विभिन्न कार्बनिक अम्लों का निर्माण होता है।
इस क्रिया को अनेक एंजाइम नियंत्रित करते हैं।
इस प्रक्रम में 36 ATP अणु बनते हैं। इस प्रकार श्वसन में कुल 38 ATP अणुओं का निर्माण होता है।
ग्लायकोलिसिस-
- इसका अध्ययन सर्वप्रथम एम्बडेन मेयरहॉफ, पारसन ने किया था। इसलिए इसे EMP पथ भी कहते हैं।
इसको अनॉक्सी श्वसन या शर्करा किण्वन भी कहा जाता है। इसमें ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में ऊर्जा मुक्त होती है।
विभिन्न सजीव ऊतकों में क्रमबद्ध विघटनकारी - अभिक्रियाओं द्वारा हेक्जोसेस (प्रायः ग्लूकोज) के पाइरूविक अम्ल में परिवर्तन को ग्लाइकोलिसिस (Glycolysis) कहते हैं।
श्वसन से संबंधित बीमारिया विकार
अस्थमा-
यह एक एलर्जी रोग है, इसका उपचार ब्रोकाडाइलाइटिस नामक थेरेपी है।
एस्पर्जिलस नामक कवक के संक्रमण से यह रोग होता है।
इस रोग में ब्रोक्रिया में सूजन आ जाता है।
इस रोग में व्यक्ति को संवातन में परेशानी आती है।
एम्फाइसीमा-
यह एक Chornic रोग है।
यह रोग धूम्रपान के सेवन से होता है, इसमें वायु कूपिकाओं में क्षति हो जाती है।
इस रोग में श्वसन सतह कम हो जाती है।
सिलीकोसिस-
सिलिका की धूल से यह रोग होता है, इसमें व्यक्ति के ब्रोकिया में सूजन आ जाती है।
Black Lung Disease-
यह रोग कोयले से होता है। इसमें व्यक्ति के फेंफडे अंदर से काले हो जाते है एवं शरीर का रंग नीला पड़ जाता है। यह रोग ब्लू बेबी सिण्ड्रोम कहलाता है।
मेट हीमोग्लोबिन-
जब हीमोग्लोबिन में उपस्थित आयरन (fe+2)की ऑक्सीजन अवस्था में कोई परिवर्तन नहीं होता तो शरीर में O2 का परिवहन अच्छा होता है।
जब शरीर में नाइट्रेट व कार्बन मोनो ऑक्साइड की मात्रा अधिक हो जाती है तब हीमोग्लोबिन में उपस्थित आयरन की ऑक्सीकरण अवस्था में परिवर्तन हो जाता है जिस कारण शरीर में O2 का परिवहन धीमा हो जाता है।