आंग्ल-मैसूर युद्ध और युद्ध का परिणाम

आंग्ल-मैसूर युद्ध और युद्ध का परिणाम

ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कंपनी ने भारत में साम्राज्यवादी विस्तार के अंतर्गत सबसे पहले बंगाल पर विजय प्राप्त किया|

बंगाल विजय के बाद अंग्रेजों की नजर मैसूर राज्य पर पड़ी|

1565ई० में तालीकोटा के युद्धमें पराजित होने केबाद विजय नगर साम्राज्य का अंत हो गया|

तालीकोटा के युद्ध के पश्चात विजय नगर सम्राज्य अनेक छोटे- छोटे राज्यों में विघटित हो गया|

इन्हीं राज्यों में से मैसूर भी एक राज्य था|

18वीं सदी के मध्य में वाडियार वंश का शासक चिक्का कृष्णराज द्वितीय था|

वास्तव में चिक्का कृष्णराज द्वितीय, वाडियार वंश का अंतिम शासक सिद्ध हुआ|

इसके समय में शासन की वास्तविक सत्ता दो मंत्रियोंनन्जराज एवं देवराजके हाँथ में थी|

इसी समय में हैदर अली,नन्जराज की सेना में भर्ती हुआ और शीघ्र ही अपनी योग्यता के बल पर हैदर अली1761 ई० में मैसूर का शासक बन बैठा|

आंग्ल-मैसूर युद्ध और युद्ध का परिणाम

दक्कन में मैसूर राज्य के दो स्वाभाविक प्रतिस्पर्धी थे

मराठा

हैदराबाद के निजाम

 

मराठा अक्सर मैसूर राज्य पर लूट-पाट करने के उद्देश्य से हमला करते थे| मराठों की आय का मुख्य श्रोत सरदेशमुखी और चौथ था|मराठे पहले तो नियोजित ढंग से किसी राज्य पर आक्रमण करते थे, फिर उस राज्य को पराजित करके उससे नियमित तौर पर चौथ तथा सरदेशमुखी वसूला करते थे|

मैसूर राज्य का दूसरा शत्रु हैदराबाद का निजाम था|वास्तव में मराठे और निजाम आपस में न तो शत्रु थे और न ही मित्र थे बल्कि ये अवसरवादी थे|

आंग्लमैसूर युद्ध के समय में मराठा तथा निजाम ने कभी मैसूर का साथ दिया तो कभी स्वयं पालाबदलकर अंग्रेजों का साथ दिया|

आंग्ल-मैसूर युद्ध भारत में अंग्रेजी राज्य का विस्तारवादी परिणाम था|अंग्रेज भारत में अपना अधिक से अधिक विस्तार करना चाहते थे जिससे भारत से उन्हें अधिक से अधिक व्यापारिक लाभ प्राप्त हो सके|

अंग्रेज अपने विस्तारवादी प्रवृत्ति के कारण किसी न किसी राज्य से युद्ध करने का बहाना खोजते रहते थे और कभी-कभी तो बिना किसी बात के भी छोटे-छोटे राज्यों पर आक्रमण कर देते थे|

आंग्ल-मैसूर युद्ध के अंतर्गत कुल चार युद्धहुए थे|प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध में मैसूर की विजय हुई जबकि अन्य तीन युद्धों में मैसूर राज्य को पराजित होना पड़ा था|

दक्षिण भारत के भारतीय शक्तियों में हैदर अली पहला व्यक्ति था जिसने अंग्रेजों को पराजित किया था|

 

आंग्ल-मैसूर युद्ध – हैदर अली कौन था?

हैदर अली का परिचय नीचे दिए गए बिंदुओं में दिया गया है:

मैसूर सेना में एक सैनिक के रूप में अपना करियर शुरू किया।

अपने सैन्य कौशल के कारण जल्द ही सेना में प्रमुखता हासिल कर ली।

उन्हें दलवयी (कमांडर-इन-चीफ) बनाया गया, और बाद में मैसूर के शासक कृष्णराज वोडेयार द्वितीय के अधीन मैसूर राज्य का मुख्यमंत्री बनाया गया।

अपने प्रशासनिक कौशल और सैन्य कौशल के माध्यम से, वह मैसूर का वास्तविक शासक बन गया|

जबकि वास्तविक राजा केवल नाम मात्र का मुखिया रह गया था।

उन्होंने एक आधुनिक सेना की स्थापना की और उन्हें यूरोपीय तर्ज पर प्रशिक्षित किया।

 

 

प्रथम आंग्ल मैसूर संघर्ष

इसमें चार युध्द अंग्रेजों और मैसूर राज्य के हुए प्रथम आंग्ल मैसूर युध्द 1767 से 1769 तक चला

यहाँ अंग्रेजों ने बंगाल विजय के पश्चात अपना ध्यान दक्षिण भारत पर लगाना शुरु कर दिया

हैदर अली का शासन नीति

जहाँ मैसूर में शक्तिशाली हैदर अली का शासन था

1767 ई. में हैदर अली के विरुध्द अंग्रेजों, निजाम, मराठों एवं कर्नाटक के नबाब का एक संयुक्त मोर्चा बनाया गया लेकिन हैदर अली ने अपनी कूट नीति से मराठों और निजामों को अपनी ओर मिला लिया

मद्रास पर घेरा

डेढ वर्ष के अनिर्णायक युध्द के पश्चात हैदरअली ने बाजी पलट दी और मद्रास को घेर लिया

अंग्रेजों हैदर अली की संधि

अंग्रेज भयभीत हो गये और उनको हैदर अली के साथ 4 अप्रैल 1769 ई. को एक अपमान जनक संधि करनी पडी

और दोनों पक्षों ने एक दूसरे के जीते हुए प्रदेश लौटा दिये

इस संधि के तहत तय हुआ कि दोंनों पक्ष बाहरी आक्रमण से एक दूसरे की रक्षा करेंगें

परन्तु 1771 के मराठा आक्रमण के समय हैदरअली ने अंग्रेजों की सहायता की

अंग्रेजों ने इस पर ध्यान ना देकर विश्वासघात किया और हैदरअली जीवनभर अंग्रेजों से घृणा करता रहा

 

द्वितीय आंग्ल मैसूर युध्द

 

अंग्रेजों का पश्चिमी तट पर अधिकार

द्वितीय आंग्ल मैसूर युध्द 1780 से 1784 तक हुआ 1779 में अंग्रेजों ने पश्चिमी तट पर फ्रेंच व्यापारिक बस्ती माहे पर अधिकार कर लिया

इस फ्रांसिसी उपनिवेश से हैदरअली के सामरिक सम्बंध (युध्द में एक दूसरे की मदद करना ) थे

 

हैदर अली का कर्नाटक के नबाब पर हमला

हैदर अली ने निजाम और मराठों के साथ मिल कर 1780 में एक संयुक्त सेना ली

और अंग्रेजों के मित्र कर्नाटक के नबाब पर हमला कर दिया

अर्काट पर अधिकार

नबाब की ओर से लडने वाली अंग्रेज सेना को हैदर अली ने बहुत बुरी तरह परास्त कर दिया

और कर्नाटक की राजधानी अर्काट पर अधिकार कर लिया और अंगेर्जी सेनापति था कर्जन वेली उसे भी कैद कर लिया

उस समय बंगाल के गवर्नर वॉरेंग हेगटिंग्स थे

इन्होंने भारत में अंग्रेजों के प्रधान सेनापति आयरकूट को एक विशाल सेना लेकर लडने के लिए भेजा

पोर्टोनोवा युध्द

आयरकूट ने हैदर अली को पोर्टोनोवा के युध्द में पराजित कर दिया

और कई स्थानों पर मैसूर की सेना ने भी अंग्रेजों को पीछे हटने पर विवश कर दिया

आयरकूट की मृत्यु

युध्द के निर्णय न होने के बीच हैदर अली 7 सितम्बर 1782 को एवं सर आयरकूट अप्रैल 1782 को स्वर्गवासी हो गये

इनकी मृत्यु के बाद अब युध्द में मैसूर की ओर से हैदर अली का पुत्र टीपू सुल्तान था और अंग्रेजों की ओर से जनरल स्टोअर्ड

 

अंग्रेजों और फ्रांसिसियों  की संधि

टीपू ने एक वर्ष तक युध्द जारी रखा परंतु दोनों में से कोई भी एक निश्चित विजय प्राप्त नहीं कर पाया

इसी बीच यूरोप में अंग्रेजों और फ्रांसिसियों के बीच संधि हो गई

मंगलौर की संधि

भारत में भी अंग्रेजों और फ्रांसिसियों के बीच 1784 में मंगलौर की संधि हो गयी

दोनों पक्षों ने एक दूसरे के जीते हुए प्रदेश लौटा दिये परंतु युध्द का दूसरा दौर भी निर्णायक साबित नहीं हो पाया

 

तृतीय अंग्ल मैसूर युध्द (1790 – 1792)

त्रिदलीय संगठन

गवर्नर जनरल लॉर्ड कॉर्नवालिस ने निजाम तथा मराठों के टीपू भावनाओं से प्रेरित हो कर 1790 ई. में टीपू के विरुध्द त्रिदलीय संगठन की रचना की

टीपू ने भी 1784 से 1785 में तुर्को का सहयोग हासिल करने के लिए कुतुस्तूनिया में एक राजदूत भेजा

टीपू ने 1787 में एक द्वीप मण्डल फ्रांस भेजा त्रावणकोण के राजा ने डचों से कोचीन रियासत जिसे टीपू अपने अधिकार क्षेत्र में समझता था में स्थित जयगोट और क्रगालूर खरीदने का प्रयास किया

टीपू का त्रावणकोण पर आक्रमण

इसे अपने राज्य में हस्तक्षेप मानते हुये अप्रैल 1790में टीपू ने त्रावणकोण पर आक्रमण कर दिया

त्रावणकोण के राजा की ओर से लडते हुए कॉर्नवालिस ने मार्च 1791में बंगलौर जीत लिया और श्रीरंगपट्टनम तक पहुँच गया

श्रीरंगपट्टनम की संधि

टीपू ने अंग्रेजों के साथ मार्च 1792 में श्रीरंगपट्टनम की संधि की यह संधि टीपू के लिए बहुत अपमानजनक संधि थी

इसके तहत टीपू को अपना आधा राज्य अंग्रेजों और उसके मित्रों को देना पडा

 

उपरोक्त संधि के तहत टीपू को जमानत के तौर पर अपने दो पुत्रों को भी कॉर्नवालिस को दे दिया

 

चतुर्थ आंग्ल मैसूर युध्द

 

बिट्रेन और फ्रांस के बीच युध्द

ये युध्द 1799 ई. में हुआ इस बीच यूरोप में बिट्रेन और फ्रांस के बीच युध्द छिड गया था

1798 ई. में कुछ फ्रांसिसी अंग्रेजों के विरुध्द टीपू को सहायता देने के उद्देश्य से मेंगलौर आये

श्रीरंगपट्टनम पर अंग्रेजों का अधिकार

फरवरी 1799 ई. में श्रीरंगपट्टनम पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया टीपू युध्द करते हुये मारा गया

टीपू का मानना था कि सौ दिन गीदड की तरह जीने से अच्छा है एक दिन शेर की तरह जीना

सुल्तान की उपाधि

टीपू ने अपने पिता हैदर अली के विपरीत सुल्तान की उपाधि भी ग्रहण की थी

टीपू का जन्म परिचय

इसका जन्म 20 नबम्बर 1750 ई. को हुआ था

अरबी, फारसी, कन्नड, उर्दू, का ज्ञाता था तलवार, बंदूक,घुडसवारी इन सब का भी ज्ञाता था

इसका शासन काल 1782 से 1799 तक रहा

 

मैसूर पर ब्रिट्रिश राज्य काअधिकार

टीपू की मृत्यु के बाद मैसूर पर ब्रिट्रिश राज्य काअधिकार हो गया

वाडियार वंश कीक बालक को मैसूर की गद्दी पर बैठा दिया गया और मैसूर पर सहायक संधि थोप दी गई

युद्ध का परिणाम:

17 अप्रैल, 1799 को युद्ध शुरू हुआ और 4 मई, 1799 को उसके पतन के साथ युद्ध समाप्त हुआ। टीपू को पहले ब्रिटिश जनरल स्टुअर्ट ने पराजित किया एवं फिर जनरल हैरिस ने।

लॉर्ड वेलेजली के भाई आर्थर वेलेजली ने भी युद्ध में भाग लिया।

मराठों और निजाम ने पुनः अंग्रेज़ों की सहायता की क्योंकि मराठों को टीपू के राज्य का आधा भाग देने का वादा किया गया था एवं निजाम पहले ही सहायक संधि पर हस्ताक्षर कर चुका था।

टीपू सुल्तान युद्ध में मारा गया एवं उसके सभी खजाने अंग्रेजों द्वारा जब्त कर लिये गए।

अंग्रेज़ों ने मैसूर के पूर्व हिंदू शाही परिवार के एक व्यक्ति को महाराजा के रूप में चुना एवं उस पर सहायक संधि आरोपित कर दी।

मैसूर को अपने अधीन करने में अंग्रेजों को 32 वर्ष लग गए थे। दक्कन में फ्राँसीसी पुनः प्रवर्तन का खतरा स्थायी रूप से समाप्त हो गया।

युद्ध के पश्चात

लॉर्ड वेलेजली ने मैसूर साम्राज्य के सूंदा एवं हरपोनेली ज़िलों को मराठों को देने की पेशकश की, जिसे बाद में मना कर दिया गया।

निजाम को गूटी एवं गुर्रमकोंडा ज़िले दिये गए थे।

अंग्रेज़ों ने कनारा, वायनाड, कोयंबटूर, द्वारापुरम एवं श्रीरंगपटनम पर अधिकार कर लिया।

मैसूर का नया राज्य एक पुराने हिंदू राजवंश के कृष्णराज तृतीय (वाडियार) को सौंप दिया गया, जिसने सहायक संधि स्वीकार कर ली।

 

 

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